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जब शिव ने सती का त्याग किया

ॐ नमः शिवाय
सभी लोग जानते हैं कि सती ने अपने पिता द्वारा शिव को यज्ञ में आमंत्रित न करने और उनका अपमान करने पर उसी यज्ञशाला में आत्मदाह कर लिया था लेकिन बहुत कम लोग यह जानते हैं कि इसकी भूमिका बहुत पहले हीं लिखी जा चुकी थी.

बात उन दिनों की है जब रावण ने सीता का हरण कर लिया था और श्रीराम और लक्षमण उनकी खोज में दर दर भटक रहे थे. जब सती ने ये देखा कि श्रीराम विष्णु के अवतार होते हुए भी इतना कष्ट उठा रहे हैं तो उनसे रहा नहीं गया और उन्होंने भगवान शिव से पूछा कि प्रभु भगवान विष्णु तो आपके परम भक्त हैं फिर किस पाप के कारण वे इतना कष्ट भोग रहे हैं? भगवान शिव ने कहा कि चूँकि श्रीहरि विष्णु मनुष्य रूप में हैं इसलिए एक साधारण मनुष्य की तरह हीं वे भी दुःख भोग रहे हैं. सती ने पूछा कि अगर विष्णु केवल एक मनुष्य के रूप में हैं तो क्या उनमे वो सरे दिव्य गुण हैं जो श्रीहरि विष्णु में हैं? शिव ने जवाब दिया कि हाँ मनुष्य होते हुए भी वे उन सारी कलाओं से युक्त हैं जो श्रीहरि विष्णु में हैं. सती को इसपर विश्वास नहीं हुआ. उन्होंने कहा कि मुझे लगता है कि मनुष्य रूप में उनकी शक्तियां भी क्षीण हो गयी हैं इसलिए तो वे एक साधारण मनुष्य की भांति विलाप कर रहे हैं. अगर वे श्रीहरि विष्णु की सारी शक्तियों से युक्त होते तो उन्हें सीता को ढूंढ़ने के लिए इस प्रकार भटकने की आवश्यकता नहीं थी. उन्हें तुरंत पता चल जाता कि सीता लंका में है. सती ने शिव से कहा कि वो श्रीराम की परीक्षा लेना चाहती है. शिव ने उन्हें मना किया किया कि ये उचित नहीं है लेकिन सती नहीं मानी. अंततः विवश होकर महाकाल ने आज्ञा दे दी.

शिव कि आज्ञा पाकर सती ने सीता का रूप धरा और जाकर वन में ठीक उस जगह बैठ गयी जहाँ से श्रीराम और श्रीलक्षमण आने वाले थे. जैसे हीं दोनों वहां से गुजरे तो उन्होंने सीता के रूप में सती को देखा. लक्षमण सती की इस माया में आ गए और सीता रूपी सती को देख कर प्रसन्न हो गए. उन्होंने जल्दी से आगे बढ़कर उन्हें प्रणाम किया. तभी अचानक श्रीराम ने भी आकर सती को दंडवत प्रणाम किया. ये देख कर लक्षमण के आश्चर्य का ठिकाना न रहा. इससे पहले वे कुछ समझ पाते, श्रीराम ने हाथ जोड़ कर सीता रूपी सती से कहा कि माता आप इस वन में क्या कर रही है? क्या आज महादेव ने आपको अकेले हीं विचरने के लिए छोड़ दिया है? अगर अपने इस पुत्र के लायक कोई सेवा हो तो बताइए. सती ने जब ऐसा सुना तो बहुत लज्जित हुई. वे अपने असली स्वरुप में आ गयी और दोनों को आशीर्वाद देकर वापस कैलाश चली गयी.

जब वो वापस आई तो शिव ने उनसे पूछा कि क्या उन्होंने श्रीराम की परीक्षा ली? सती ने झूठ हीं कह दिया कि उन्होंने कोई परीक्षा नहीं ली. शिव से क्या छुपा था. उन्हें तुरंत पता चल गया कि सती ने सीता का रूप धर कर श्रीराम की परीक्षा ली थी. उन्होंने सोचा कि भले हीं सती ने अनजाने में हीं सीता का रूप धरा था किन्तु शिव सीता को पुत्री के रूप के अतिरिक्त और किसी रूप में देख हीं नहीं सकते थे. अब उनके लिए सती को एक पत्नी के रूप में देख पाना संभव हीं नहीं था. उसी क्षण से शिव मन हीं मन सती से विरक्त हो गए. उनके व्यहवार में आये परिवर्तन को देख कर सती ने अपने पितामह ब्रम्हा से इसका कारण पूछा तो उन्होंने सती को उनकी गलती का एहसास कराया. ब्रम्हदेव ने कहा कि इस जन्म में तो अब शिव किसी भी परिस्थिति में तुम्हे अपनी पत्नी के रूप में नहीं देख सकेंगे. इसी कारण सती ने भी मन हीं मन अपने शरीर का त्याग कर दिया. जब उन्हें अपने पिता दक्ष द्वारा शिव के अपमान के बारे में पता चला तो उन्होंने यज्ञ में जाने की आज्ञा मांगी. शिव ये भली भांति जानते थे कि सती अपने इस शरीर का त्याग करना चाहती है इसलिए उन्होंने सती को यज्ञ में न जाने की सलाह दी किन्तु सती हठ कर कर वहां चली गयी और जैसा कि पहले से तय था, उन्होंने वहां आत्मदाह कर लिया. इस प्रकार दक्ष का यज्ञ केवल सती के शरीर त्याग करने का कारण मात्र बन कर रह गया.

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