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विशेष

शनिवार 21 सितम्बर 2013
प्रस्तुतकर्ता :- उमा महादेव ग्रुप 

ॐ नमः शिवाय


शिव का बीज अक्षर है ‘न’। यह अक्षर शिव की शक्ति ने उन्हें दिया। शिव से शक्ति को निकाल दो, वह शव हो जाएंगे। न चल पाएंगे, न बोल पाएंगे। उसी शक्ति ने संसार को ‘नम: शिवाय’ का मंत्र दिया, जिसका अर्थ है-जो कल्याणकारी है, उसको नमस्कार..
शिव की अर्धनारीश्वर लीला की कथा बड़ी दिलचस्प है। संक्षेप में कथा पढ़ें- ब्रम्हा सृष्टि की उत्पत्ति के तमाम प्रयास कर रहे हैं, लेकिन सृष्टि बढ़ नहीं रही। वह अपने मानसपुत्रों के ज़रिए सृष्टि बढ़ाना चाहते हैं। निष्फल होकर वह शिव की आराधना करते हैं। शिव उन्हें सृष्टि का प्रसार पुरुष और प्रकृति दो तत्वों से करने को कहते हैं। तब तक स्त्री बनी ही नहीं थी। ब्रrा को परेशान देखकर शिव स्वयं को ऐसे शरीर में बदल देते हैं, जो आधा पुरुष और आधा स्त्री का है। वह स्त्री अपने तीसरे नेत्र से सृष्टि की पहली स्त्री को प्रकट करती है। ब्रrा अपने मानस से मनु-शतरूपा को पैदा करते हैं। इस तरह सृष्टि चल पड़ती है।

शिव के साथ जो स्त्री देह है, वह शक्ति की है। शिव की शक्ति। आदिशक्ति शिवा उस समय शिव के पास ही बैठी थीं, लेकिन शिव ने अपनी एक और अव्यक्त शक्ति को अपने शरीर से प्रकट किया। वह अव्यक्त शक्ति ही प्रकट रूप में स्त्री बनी। वही सती है, पार्वती है, चंडी है। शिव के पास अनगिनत शक्तियां हैं। अव्यक्त स्वरूप में सब अलग-अलग लगती हैं, लेकिन व्यक्त स्वरूप में सब पार्वती ही हैं।

हर शक्ति जब प्रकट होगी, तो वह पार्वती का ही रूप लेगी। अर्धनारीश्वर लीला के अनुसार शिव ने सृष्टि को पहली स्त्री दी। इस प्रकार संसार की जितनी भी स्त्रियां हैं, वे एक तरह से शिव की शक्ति पार्वती का ही रूप हैं। उन्हीं का अंश हैं। यदि मातृका वंश चलता होता, तो सारी स्त्रियों को पार्वती कुल का कहा जाएगा।

सांख्य शास्त्र के अनुसार शिव निष्क्रिय तत्व हैं। प्रकृति यानी शक्ति सक्रिय है। शिव से उनकी शक्ति को निकाल दिया जाए, तो शिव, शव के समान हो जाएंगे। चूंकि उनका मूल भाव निष्क्रियता का है, अत: शक्ति के बिना वह हिल भी नहीं सकते। जब हम बहुत साधारण रूप में यह कहते हैं कि आज तो हिलने की भी शक्ति नहीं बची हममें, तो दरअसल हम शिव और शक्ति के मेल से बने मुहावरे का प्रयोग करते हैं।

शिव की एक-एक क्रिया शक्ति से संचालित है। उठना, बैठना, सोचना, चलना और लड़ना आदि। अगर शक्ति न हो, तो शिव इनमें से कुछ नहीं कर सकेंगे। यानी पार्वती का उनके साथ रहना बहुत ज़रूरी है।

आपको शिव कभी अकेले नहीं दिखेंगे, किसी तस्वीर में भी नहीं। लिंग-रूप में भी उनके साथ पार्वती यानी शक्ति मौजूद हैं। लिंग के आधार के रूप में। जिन तस्वीरों में शिव अकेले खड़े हैं, उनमें उनके वस्त्र, अस्त्र व जटा से निकलती गंगा की धार दिखती है। यह भी उनकी शक्ति ही है। शिव की व्यक्त यानी प्रकट शक्ति है पार्वती और अव्यक्त शक्तियां हैं ये सब। तो सवाल यह उठता है कि जिस समय सती के टुकड़े-टुकड़े हो गए थे और पार्वती अभी अपने पिता के यहां जन्मी ही थीं, तब से लेकर पार्वती से शिव के विवाह के समय क्या शिव निष्क्रिय हो गए थे?

शिव की शक्ति को अधूरा समझें, तो हां कहेंगे, पर ऐसा है नहीं। सती या पार्वती शिव की व्यक्त शक्ति थीं। जब वे दोनों उनके साथ नहीं थीं, तब भी आदिशक्ति शिवा के रूप में वे शिव के शरीर में ही समाई हुई थीं। उतना पूरा समय शिव ने श्रीराम, जिनका आगे चलकर अवतार होना था, की तपस्या में बिताया। वह योगनिद्रा में चले गए। योगनिद्रा भी शिव की शक्ति ही है। योग या योग की विद्या भी शिव ने ही रची है। शिव से शक्ति को अलग कर पाना उतना ही असंभव है, जितना पानी के भीतर से हवा को निकाल देना।

हवा, पानी के भीतर भी रहती है, प्राणवायु के रूप में, तभी तो मछलियां ज़िंदा रहती हैं। जैसे सूर्य से उसकी किरणों भिन्न नहीं है, जैसे बीज से अंकुर भिन्न नहीं होता, वैसे ही शक्तिमान शिव से शक्ति भिन्न नहीं। यह तो साधक की आस्था होती है कि किसकी ओर •यादा झुके। कुछ बच्चे मां से •यादा निकटता रखते हैं, तो कुछ पिता से। जबकि दोनों के प्रेम और महत्व में कोई भिन्नता नहीं।

शिव अपनी शक्ति की आराधना करते हैं और शक्ति शिव की। ये परस्पर पूरक हैं। एक को हटाकर दूसरे को नहीं देखा जा सकता। शिव ‘न’ कार है। यानी ‘न’ अक्षर उनका बीज है। यह बीजाक्षर उनकी शक्ति ने ही हुंकारा था। उसी से पंचाक्षर मंत्र ‘नम: शिवाय’ की उत्पत्ति हुई थी। पार्वती शिव की प्रेरणा शक्ति हैं।

शिव ने सृष्टि के कई रहस्यों पर से परदा पार्वती के कहने पर ही उठाया। उन्हीं के अनुरोध पर शिव ने अनेक मंत्रों, तंत्रों, पुराणों को लिखवाया, सुनाया। अमरकथा, जिसके सुनने से मोक्ष की प्राप्ति कहा जाता है, पहली बार शिव ने पार्वती को ही सुनाई थी। आम शब्दों में कहें, तो शिव की जान पार्वती में बसती है और पार्वती की शिव में।

पार्वती के प्रेम की एक कथा है। जब पार्वती भगवान शिव को पति के रूप में प्राप्त करने के लिए घोर तप कर रही थीं, तो एक संन्यासी वहां आया। उसने शिव की वेशभूषा, जीवनशैली की निंदा की और पार्वती से विष्णु को पति रूप में धारण करने का आग्रह किया। पार्वती क्रोधित हो गई और उन्होंने संन्यासी को बहुत फटकारा। कहा, जिससे प्रेम हो जाए, जिसमें मन रम जाए, उसके अवगुण नहीं देखा करते। प्रेम उन्हीं अवगुणों को गुण बना देता है। गोस्वामी तुलसीदास ने इसे यूं लिखा है-

                       महादेव अवगुन भवन बिष्नु सकल गुन धाम।
जेहि कर मनु रम जाहि सन तेहि तेही सन काम।

पार्वती ने यहां तक कह दिया-

जनम कोटि लगि रगर हमारी। 
बरउं संभु न त रहउं कुंआरी।

यानी भले करोडों जन्म लेने पड़ जाएं, शादी तो शिव से ही करूं गी, नहीं तो कुंआरी ही रहूंगी। यह सुनकर संन्यासी अपने असली रूप में आ गए। वे सप्तर्षि थे। शिव-पार्वती की जोड़ी को आदर्श पति-पत्नी के रूप में देखा जाता है। समर्पण का ऐसा उदाहरण और कहीं नहीं मिलता। पार्वती के पति परमेश्वर हैं, इसलिए ‘पति परमेश्वर’ शब्द बना। विदाई के समय पार्वती की मां मैना ने उनसे कहा।

करेहु सदा संकर पद पूजा। 
नारि धरमु पति देउ न दूजा।

तुलसी ने रामचरितमानस में इस प्रकरण को लिखा है। पार्वती से कहा गया-हमेशा शंकर के पद की पूजा करना। नारीधर्म के अनुसार पति से बड़ा देव कोई दूसरा नहीं है।

शिवपुराण के अनुसार, नारीधर्म की स्थापना पार्वती ने ही की। पत्नी के क्या धर्म होते हैं, क्या कत्र्तव्य, क्या आकांक्षा और क्या देय - यह पार्वती ने ही बताया है। दरअसल, शंकर पार्वती की सेवा से बहुत विचलित हो गए थे। उनकी जीवन शैली को पार्वती ने व्यवस्थित कर दिया था, लेकिन ख़ुद हमेशा खटती रहती थीं।

व्यथित होकर शंकर ने उनसे प्रश्न किया कि आख़िर पत्नीधर्म क्या है? क्यों तुम मेरी इतनी सेवा करती हो? तब पवित्र नदी गंगा के सामने पार्वती ने यह पत्नीधर्म बताया। साथ ही यह भी कहा कि संकट के समय यदि कोई भी नम: शिवाय का स्मरण करे, तो शिव के साथ स्वयं पार्वती भी उसकी रक्षा के लिए आती हैं।

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