ऐसा विचार कर दोनों कैलाश की ओर चल दिये। भगवान शिव के दर्शन के लिए कैलाश मार्ग पर आधी दूर गये होंगे कि देखते हैं भगवान शंकर स्वयं गिरिजा के साथ उनकी ओर चले आ रहे हैं। अब भगवान के आनंद का तो ठिकाना ही नहीं रहा। मानों घर बैठे निधि मिल गयी। पास आते ही दोनों परस्पर बड़े प्रेम से मिले। ऐसा लगा, मानों प्रेम और आनंद का समुद्र उमड़ पड़ा। एक-दूसरे को देखकर दोनों के नेत्रों से आनन्दाश्रु बहने लगे और शरीर पुलकायमान हो गया। दोनों ही एक-दूसरे से लिपटे हुए कुछ देर मूकवत् खड़े रहे। प्रशनोत्तर होने पर मालूम हुआ कि शंकर जी को भी रात्रि में इसी प्रकार का स्वप्न हुआ कि मानों विष्णु भगवान को वे उसी रूप में देख रहे हैं, जिस रूप में अब उनके सामने खड़े थे।
दोनों के स्वप्न के वृत्तान्त से अवगत होने के बाद दोनों एक-दूसरे को अपने निवास ले जाने का आग्रह करने लगे। नारायण ने कहा कि वैकुण्ठ चलो और भोलेनाथ कहने लगे कि कैलाश की ओर प्रस्थान किया जाये। दोनों के आग्रह में इतना अलौकिक प्रेम था कि यह निर्णय करना कठिन हो गया कि कहां चला जाय? इतने में ही क्या देखते हैं कि वीणा बजाते, हरिगुण गाते नारद जी कहीं से आ निकले। बस, फिर क्या था? लगे दोनों उनसे निर्णय कराने कि कहां चला जाय? बेचारे नारदजी तो स्वयं परेशान थे, उस अलौकिक-मिलन को देखकर। वे तो स्वयं अपनी सुध-बुध भूल गये और लगे मस्त होकर दोनों का गुणगान करने। अब निर्णय कौन करे? अंत में यह तय हुआ कि भगवती उमा जो कह दें, वही ठीक है। भगवती उमा पहले तो कुछ देर चुप रहीं। अंत में वे दोनों की ओर मुख करते हुए बोलीं, ``हे नाथ, हे नारायण, आप लोगों के निश्चल, अनन्य एवं अलौकिक प्रेम को देखकर तो यही समझ में आता है कि आपके निवास अलग-अलग नहीं हैं, जो कैलाश है, वही वैकुण्ठ है और जो वैकुण्ठ है, वही कैलाश है, केवल नाम में ही भेद है। यहीं नहीं, मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि आपकी आत्मा भी एक ही है, केवल शरीर देखने में दो हैं। और तो और, मुझे तो स्पष्ट लग रहा है कि आपकी भार्याएँ भी एक ही हैं। जो मैं हूं, वही लक्ष्मी हैं और जो लक्ष्मी हैं, वही मैं हूँ। केवल इतना ही नहीं, मेरी तो अब यह दृढ़ धारणा हो गयी है कि आप लोगों में से एक के प्रति जो द्वेष करता है, वह मानों दूसरे के प्रति ही करता है। एक की जो पूजा करता है, वह मानों दूसरे की भी पूजा करता है। मैं तो तय समझती हूं कि आप दोनों में जो भेद मानता है, उसका चिरकाल तक घोर पतन होता है। मैं देखती हूं कि आप मुझे इस प्रसंग में अपना मध्यस्थ बनाकर मानो मेरी प्रवंचना कर रहे हैं, मुझे असमंजस में डाल रहे हैं, मुझे भुला रहे हैं। अब मेरी यह प्रार्थना है कि आप लोग दोनों ही अपने-अपने लोक को पधारिये। श्रीविष्णु यह समझें कि हम शिव रूप में वैकुण्ठ जा रहे हैं और महेश्वर यह मानें कि हम विष्णु रूप में कैलाश-गमन कर रहे हैं।
इस उत्तर को सुनकर दोनों परम प्रसन्न हुए और भगवती उमा की प्रशंसा करते हुए, दोनों ने एक-दूसरे को प्रणाम किया और अत्यंत हर्षित होकर अपने-अपने लोक को प्रस्थान किया। लौटकर जब श्रीविष्णु वैकुण्ठ पहुंचे तो श्रीलक्ष्मी जी ने उनसे प्रशन किया, ``हे प्रभु, आपको सबसे अधिक प्रिय कौन है?'' भगवन बोले, ``प्रिये, मेरे प्रियतम केवल श्रीशंकर हैं। देहधारियों को अपने देह की भांति वे मुझे अकारण ही प्रिय हैं। एक बार मैं और श्रीशंकर दोनों पृथ्वी पर घूमने निकले। मैं अपने प्रियतम की खोज में इस आशय से निकला कि मेरी ही तरह जो अपने प्रियतम की खोज में देश-देशान्तर में भटक रहा होगा, वही मुझे अकारण प्रिय होगा। थोड़ी देर के बाद मेरी श्री शंकर जी से भेंट हो गयी। वास्तव में मैं ही जनार्दन हूं और मैं ही महादेव हूं। अलग-अलग दो घड़ों में रखे हुए जल की भांति मुझमें और उनमें कोई अंतर नहीं है। शंकरजी के अतिरिक्त शिव की चर्चा करने वाला शिवभक्त भी मुझे अत्यंत प्रिय है। इसके विपरीत जो शिव की पूजा नहीं करते, वे मुझे कदापि प्रिय नहीं हो सकते।''
इस तरह जो शिव की पूजा करता है वह वैकुंठवासी विष्णु को भी स्वीकार है और जो श्री विष्णु की वंदना करता है, वह त्रिपुरारी को भी मना लेता है।


भगवान शिव की कृपा आप सब पर बनी रहे ।

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