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पशुपत्यष्टकम्
ॐ नमः शिवाय
इस जगत के सम्पूर्ण चर, अचर प्राणी (पशु) के स्वामी भगवान शिव ही हैं | उन सहस्त्र नामों से जाने जाते हैं महेश्वर के आठ प्रमुख नामों में एक है – पशुपति जो शिव के प्राणीमात्र के स्वामी होने को इंगित करता है | प्रस्तुत अष्टक शिव के इन्ही पशुपति स्वरूप की स्तुति है |
पशुपतिं द्युपतिं धरणिपतिं भुजगलोकपतिं च सतीपतिम्।
प्रणतभक्तजनार्तिहरं परं भजत रे मनुजा गिरिजापतिम्।।1।।
हे मनुष्यों! स्वर्ग, मर्त्य तथा नागलोक के जो स्वामी हैं, और जो शरणागत भक्तजनों की पीड़ा को दूर करते हैं, ऐसे पार्वतीवल्लभ व पशुपतिनाथ आदि नामों से प्रसिद्ध परमपुरुष गिरिजापति शंकर भगवान् का भजन करो।
न जनको जननी न च सोदरो न तनयो न च भूरिबलं कुलम्।
अवति कोऽपि न कालवशं गतं भजत रे मनुजा गिरिजापतिम्।।2।।
हे मनुष्यों! काल के गाल में पड़े हुए इस जीव को माता, पिता, सहोदरभाई, पुत्र, अत्यन्त बल व कुल; इनमें से कोई भी नहीं बचा सकता है। अत: परमपिता परमात्मा पार्वतीपति भगवान् शिव का भजन करो।
मुरजडिण्डिमवाद्यविलक्षणं मधुरपञ्चमनादविशारदम्।
प्रमथभूतगणैरपि सेवितं, भजत रे मनुजा गिरिजापतिम्।।3।।
हे मनुष्यों! जो मृदङ्ग व डमरू बजाने में निपुण हैं, मधुर पञ्चम स्वर में गाने में कुशल हैं, और प्रमथ आदि भूतगणों से सेवित हैं, उन पार्वती वल्लभ भगवान् शिव का भजन करो।
शरणदं सुखदं शरणान्वितं शिव शिवेति शिवेति नतं नृणाम्।
अभयदं करुणावरुणालयं भजत रे मनुजा गिरिजापतिम्।।4।।
हे मनुष्यों! ‘शिव, शिव, शिव’ कहकर मनुष्य जिनको प्रणाम करते हैं, जो शरणागत को शरण, सुख व अभयदान देते हैं, ऐसे करुणासागरस्वरूप भगवान् गिरिजापति का भजन करो।
नरशिरोरचितं मणिकुण्डलं भुजगहारमुदं वृषभध्वजम्।
चितिरजोधवलीकृतविग्रहं भजत रे मनुजा गिरिजापतिम्।।5।।
हे मनुष्यों! जो नरमुण्ड रूपी मणियों का कुण्डल पहने हुए हैं, और सर्पराज के हार से ही प्रसन्न हैं, शरीर में चिता की भस्म रमाये हुए हैं, ऐसे वृषभध्वज भवानीपति भगवान् शंकर का भजन करो।
मखविनाशकरं शशिशेखरं सततमध्वरभाजिफलप्रदम्।
प्रलयदग्धसुरासुरमानवं भजत रे मनुजा गिरिजापतिम्।।6।।
हे मनुष्यों! जिन्होंने दक्ष यज्ञ का विनाश किया, जिनके मस्तक पर चन्द्रमा सुशोभित है, जो निरन्तर यज्ञ करने वालों को यज्ञ का फल देते हैं, और प्रलयावस्था में जिन्होने देव दानव व मानव को दग्ध कर दिया है, ऐसे पार्वती वल्लभ भगवान् शिव का भजन करो।
मदमपास्य चिरं हृदि संस्थितं मरणजन्मजराभयपीडितम्।
जगदुदीक्ष्य समीपभयाकुलं भजत रे मनुजा गिरिजापतिम् ।।7।।
हे मनुष्यों! मृत्यु, जन्म व जरा के भय से पीड़ित, विनाशशील एवं भयों से व्याकुल इस संसार को अच्छी तरह देखकर, चिरकाल से हृदय में स्थित अज्ञानरूप अहंकार को छोड़कर भवानीपति भगवान् शिव का भजन करो।
हरिविरञ्चिसुराधिपपूजितं यमजनेशधनेशनमस्कृतम्।
त्रिनयनं भुवनत्रितयाधिपं भजत रे मनुजा गिरिजापतिम्।।8।।
हे मनुष्यों! जिनकी पूजा ब्रह्मा, विष्णु व इन्द्र आदि करते हैं, यम, जनेश व कुबेर जिनको प्रणाम करते हैं, जिनके तीन नेत्र हैं और जो त्रिभुवन के स्वामी हैं, उन गिरिजापति भगवान शिव का भजन करो।
पशुपतेरिदमष्टकमद्भुतं विरचितं पृथिवीपतिसूरिणा।
पठति संशृणुते मनुजः सदा शिवपुरीं वसते लभते मुदम्।।9।।
जो मनुष्य पृथ्वीपति सूरी के द्वारा रचित इस पशुपति अष्टकम् का पाठ या इसका श्रवण करता है,वह शिवपुरी में निवास करके आनन्दित होता है।
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श्री शिवरक्षा-स्तोत्रम्
ॐ नमः शिवाय
अस्य श्रीशिवरक्षा-स्तोत्र-मन्त्रस्य याज्ञवल्क्य ऋषिः,
श्रीसदाशिवो देवता, अनुष्टुप् छन्दः,
श्रीसदाशिव-प्रीत्यर्थे शिवरक्षा-स्तोत्र-जपे विनियोगः ॥
श्रीसदाशिवो देवता, अनुष्टुप् छन्दः,
श्रीसदाशिव-प्रीत्यर्थे शिवरक्षा-स्तोत्र-जपे विनियोगः ॥
चरितं देवदेवस्य महादेवस्य पावनम् ।
अपारं परमोदारं चतुर्वर्गस्य साधनम् ॥ (१)
अपारं परमोदारं चतुर्वर्गस्य साधनम् ॥ (१)
गौरी-विनायकोपेतं पञ्चवक्त्रं त्रिनेत्रकम् ।
शिवं ध्यात्वा दशभुजं शिवरक्षां पठेन्नरः ॥ (२)
शिवं ध्यात्वा दशभुजं शिवरक्षां पठेन्नरः ॥ (२)
गङ्गाधरः शिरः पातु भालमर्द्धेन्दु-शेखरः ।
नयने मदन-ध्वंसी कर्णौ सर्प-विभूषणः ॥ (३)
नयने मदन-ध्वंसी कर्णौ सर्प-विभूषणः ॥ (३)
घ्राणं पातु पुराराति-र्मुखं पातु जगत्पतिः ।
जिह्वां वागीश्वरः पातु कन्धरां शिति-कन्धरः ॥ (४)
जिह्वां वागीश्वरः पातु कन्धरां शिति-कन्धरः ॥ (४)
श्रीकण्ठः पातु मे कण्ठं स्कन्धौ विश्व-धुरन्धरः ।
भुजौ भूभार-संहर्त्ता करौ पातु पिनाकधृक् ॥ (५)
भुजौ भूभार-संहर्त्ता करौ पातु पिनाकधृक् ॥ (५)
हृदयं शङ्करः पातु जठरं गिरिजापतिः ।
नाभिं मृत्युञ्जयः पातु कटी व्याघ्रजिनाम्बरः ॥ (६)
नाभिं मृत्युञ्जयः पातु कटी व्याघ्रजिनाम्बरः ॥ (६)
सक्थिनी पातु दीनार्त्त-शरणागत-वत्सलः ।
ऊरू महेश्वरः पातु जानुनी जगदीश्वरः ॥ (७)
ऊरू महेश्वरः पातु जानुनी जगदीश्वरः ॥ (७)
जङ्घे पातु जगत्कर्त्ता गुल्फौ पातु गणाधिपः ।
चरणौ करुणासिन्धुः सर्वाङ्गानि सदाशिवः ॥ (८)
चरणौ करुणासिन्धुः सर्वाङ्गानि सदाशिवः ॥ (८)
एतां शिव-बलोपेतां रक्षां यः सुकृती पठेत् ।
स भुक्त्वा सकलान् कामान् शिव-सायुज्यमाप्नुयात् ॥ (९)
स भुक्त्वा सकलान् कामान् शिव-सायुज्यमाप्नुयात् ॥ (९)
ग्रह-भूत-पिशाचाद्यास्त्रैलोक्ये विचरन्ति ये ।
दूरादाशु पलायन्ते शिव-नामाभिरक्षणात् ॥ (१०)
दूरादाशु पलायन्ते शिव-नामाभिरक्षणात् ॥ (१०)
अभयङ्कर-नामेदं कवचं पार्वतीपतेः ।
भक्त्या बिभर्त्ति यः कण्ठे तस्य वश्यं जगत् त्रयम् ॥ (११)
भक्त्या बिभर्त्ति यः कण्ठे तस्य वश्यं जगत् त्रयम् ॥ (११)
इमां नारायणः स्वप्ने शिवरक्षां यथादिशत् ।
प्रातरुत्थाय योगीन्द्रो याज्ञवल्क्यस्तथालिखत् ॥ (१२)
प्रातरुत्थाय योगीन्द्रो याज्ञवल्क्यस्तथालिखत् ॥ (१२)
इति श्रीयाज्ञवल्क्य-प्रोक्तं शिवरक्षा-स्तोत्रं सम्पूर्णम् ।
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शिव मानस पूजा
ॐ नमः शिवाय
रत्नैः कल्पितमासनं हिमजलैः स्नानं च दिव्याम्बरं।
नाना रत्न विभूषितम् मृग मदामोदांकितम् चंदनम॥
जाती चम्पक बिल्वपत्र रचितं पुष्पं च धूपं तथा।
दीपं देव दयानिधे पशुपते हृत्कल्पितम् गृह्यताम्॥1॥
सौवर्णे नवरत्न खंडरचिते पात्र धृतं पायसं।
भक्ष्मं पंचविधं पयोदधि युतं रम्भाफलं पानकम्॥
शाका नाम युतं जलं रुचिकरं कर्पूर खंडौज्ज्वलं।
ताम्बूलं मनसा मया विरचितं भक्त्या प्रभो स्वीकुरु॥2॥
छत्रं चामर योर्युगं व्यजनकं चादर्शकं निमलं।
वीणा भेरि मृदंग काहलकला गीतं च नृत्यं तथा॥
साष्टांग प्रणतिः स्तुति-र्बहुविधा ह्येतत्समस्तं ममा।
संकल्पेन समर्पितं तव विभो पूजां गृहाण प्रभो॥3॥
आत्मा त्वं गिरिजा मतिः सहचराः प्राणाः शरीरं गृहं।
पूजा ते विषयोपभोगरचना निद्रा समाधिस्थितिः॥
संचारः पदयोः प्रदक्षिणविधिः स्तोत्राणि सर्वा गिरो।
यद्यत्कर्म करोमि तत्तदखिलं शम्भो तवाराधनम्॥4॥
कर चरण कृतं वाक्कायजं कर्मजं वा श्रवणनयनजं वा मानसं वापराधम्।
विहितमविहितं वा सर्वमेतत्क्षमस्व जय जय करणाब्धे श्री महादेव शम्भो॥5॥
नाना रत्न विभूषितम् मृग मदामोदांकितम् चंदनम॥
जाती चम्पक बिल्वपत्र रचितं पुष्पं च धूपं तथा।
दीपं देव दयानिधे पशुपते हृत्कल्पितम् गृह्यताम्॥1॥
सौवर्णे नवरत्न खंडरचिते पात्र धृतं पायसं।
भक्ष्मं पंचविधं पयोदधि युतं रम्भाफलं पानकम्॥
शाका नाम युतं जलं रुचिकरं कर्पूर खंडौज्ज्वलं।
ताम्बूलं मनसा मया विरचितं भक्त्या प्रभो स्वीकुरु॥2॥
छत्रं चामर योर्युगं व्यजनकं चादर्शकं निमलं।
वीणा भेरि मृदंग काहलकला गीतं च नृत्यं तथा॥
साष्टांग प्रणतिः स्तुति-र्बहुविधा ह्येतत्समस्तं ममा।
संकल्पेन समर्पितं तव विभो पूजां गृहाण प्रभो॥3॥
आत्मा त्वं गिरिजा मतिः सहचराः प्राणाः शरीरं गृहं।
पूजा ते विषयोपभोगरचना निद्रा समाधिस्थितिः॥
संचारः पदयोः प्रदक्षिणविधिः स्तोत्राणि सर्वा गिरो।
यद्यत्कर्म करोमि तत्तदखिलं शम्भो तवाराधनम्॥4॥
कर चरण कृतं वाक्कायजं कर्मजं वा श्रवणनयनजं वा मानसं वापराधम्।
विहितमविहितं वा सर्वमेतत्क्षमस्व जय जय करणाब्धे श्री महादेव शम्भो॥5॥
भावार्थ:
मैं ऐसी भावना करता हूँ, कि हे दयालु पशुपति देव! संपूर्ण रत्नों से निर्मित इस सिंहासन पर आप विराजमान होइए। हिमालय के शीतल जल से मैं आपको स्नान करवा रहा हूँ। स्नान के उपरांत रत्नजड़ित दिव्य वस्त्र आपको अर्पित है। केसर-कस्तूरी में बनाया गया चंदन का तिलक आपके अंगों पर लगा रहा हूँ। जूही, चंपा, बिल्वपत्र आदि की पुष्पांजलि आपको समर्पित है। सभी प्रकार की सुगंधित धूप और दीपक मानसिक प्रकार से आपको दर्शित करवा रहा हूँ, आप ग्रहण कीजिए।
मैंने नवीन स्वर्णपात्र, जिसमें विविध प्रकार के रत्न जड़ित हैं, में खीर, दूध और दही सहित पाँच प्रकार के स्वाद वाले व्यंजनों के संग कदलीफल, शर्बत, शाक, कपूर से सुवासित और स्वच्छ किया हुआ मृदु जल एवं ताम्बूल आपको मानसिक भावों द्वारा बनाकर प्रस्तुत किया है। हे कल्याण करने वाले! मेरी इस भावना को स्वीकार करें।
हे भगवन, आपके ऊपर छत्र लगाकर चँवर और पंखा झल रहा हूँ। निर्मल दर्पण, जिसमें आपका स्वरूप सुंदरतम व भव्य दिखाई दे रहा है, भी प्रस्तुत है। वीणा, भेरी, मृदंग, दुन्दुभि आदि की मधुर ध्वनियाँ आपको प्रसन्नता के लिए की जा रही हैं। स्तुति का गायन, आपके प्रिय नृत्य को करके मैं आपको साष्टांग प्रणाम करते हुए संकल्प रूप से आपको समर्पित कर रहा हूँ। प्रभो! मेरी यह नाना विधि स्तुति की पूजा को कृपया ग्रहण करें।
हे शंकरजी, मेरी आत्मा आप हैं। मेरी बुद्धि आपकी शक्ति पार्वतीजी हैं। मेरे प्राण आपके गण हैं। मेरा यह पंच भौतिक शरीर आपका मंदिर है। संपूर्ण विषय भोग की रचना आपकी पूजा ही है। मैं जो सोता हूँ, वह आपकी ध्यान समाधि है। मेरा चलना-फिरना आपकी परिक्रमा है। मेरी वाणी से निकला प्रत्येक उच्चारण आपके स्तोत्र व मंत्र हैं। इस प्रकार मैं आपका भक्त जिन-जिन कर्मों को करता हूँ, वह आपकी आराधना ही है।
हे परमेश्वर! मैंने हाथ, पैर, वाणी, शरीर, कर्म, कर्ण, नेत्र अथवा मन से अभी तक जो भी अपराध किए हैं। वे विहित हों अथवा अविहित, उन सब पर आपकी क्षमापूर्ण दृष्टि प्रदान कीजिए। हे करुणा के सागर भोले भंडारी श्री महादेवजी, आपकी जय हो। जय हो।
उक्त सुंदर भावनात्मक स्तुति द्वारा हम मानसिक शांति तथा ईश्वर की कृपा के साथ बिना किसी साधन, सहायक, विधि के अपनी पूजा किसी भी प्रकार संपन्न कर सकते हैं। मानसिक पूजा शास्त्रों में श्रेष्ठतम पूजा के रूप में वर्णित है। भौतिक पूजा का उद्देश्य भी मानसिक रूप से ईश्वरके सान्निध्य में होना ही है। यह शिव मानस पूजा की रचना हमारे लिए आदिगुरु की कृपा का दिव्य साक्षात् प्रसाद ही है। आवश्यकता सिर्फ इस प्रसाद को निरंतर ग्रहण करते रहने की है।
मैं ऐसी भावना करता हूँ, कि हे दयालु पशुपति देव! संपूर्ण रत्नों से निर्मित इस सिंहासन पर आप विराजमान होइए। हिमालय के शीतल जल से मैं आपको स्नान करवा रहा हूँ। स्नान के उपरांत रत्नजड़ित दिव्य वस्त्र आपको अर्पित है। केसर-कस्तूरी में बनाया गया चंदन का तिलक आपके अंगों पर लगा रहा हूँ। जूही, चंपा, बिल्वपत्र आदि की पुष्पांजलि आपको समर्पित है। सभी प्रकार की सुगंधित धूप और दीपक मानसिक प्रकार से आपको दर्शित करवा रहा हूँ, आप ग्रहण कीजिए।
मैंने नवीन स्वर्णपात्र, जिसमें विविध प्रकार के रत्न जड़ित हैं, में खीर, दूध और दही सहित पाँच प्रकार के स्वाद वाले व्यंजनों के संग कदलीफल, शर्बत, शाक, कपूर से सुवासित और स्वच्छ किया हुआ मृदु जल एवं ताम्बूल आपको मानसिक भावों द्वारा बनाकर प्रस्तुत किया है। हे कल्याण करने वाले! मेरी इस भावना को स्वीकार करें।
हे भगवन, आपके ऊपर छत्र लगाकर चँवर और पंखा झल रहा हूँ। निर्मल दर्पण, जिसमें आपका स्वरूप सुंदरतम व भव्य दिखाई दे रहा है, भी प्रस्तुत है। वीणा, भेरी, मृदंग, दुन्दुभि आदि की मधुर ध्वनियाँ आपको प्रसन्नता के लिए की जा रही हैं। स्तुति का गायन, आपके प्रिय नृत्य को करके मैं आपको साष्टांग प्रणाम करते हुए संकल्प रूप से आपको समर्पित कर रहा हूँ। प्रभो! मेरी यह नाना विधि स्तुति की पूजा को कृपया ग्रहण करें।
हे शंकरजी, मेरी आत्मा आप हैं। मेरी बुद्धि आपकी शक्ति पार्वतीजी हैं। मेरे प्राण आपके गण हैं। मेरा यह पंच भौतिक शरीर आपका मंदिर है। संपूर्ण विषय भोग की रचना आपकी पूजा ही है। मैं जो सोता हूँ, वह आपकी ध्यान समाधि है। मेरा चलना-फिरना आपकी परिक्रमा है। मेरी वाणी से निकला प्रत्येक उच्चारण आपके स्तोत्र व मंत्र हैं। इस प्रकार मैं आपका भक्त जिन-जिन कर्मों को करता हूँ, वह आपकी आराधना ही है।
हे परमेश्वर! मैंने हाथ, पैर, वाणी, शरीर, कर्म, कर्ण, नेत्र अथवा मन से अभी तक जो भी अपराध किए हैं। वे विहित हों अथवा अविहित, उन सब पर आपकी क्षमापूर्ण दृष्टि प्रदान कीजिए। हे करुणा के सागर भोले भंडारी श्री महादेवजी, आपकी जय हो। जय हो।
उक्त सुंदर भावनात्मक स्तुति द्वारा हम मानसिक शांति तथा ईश्वर की कृपा के साथ बिना किसी साधन, सहायक, विधि के अपनी पूजा किसी भी प्रकार संपन्न कर सकते हैं। मानसिक पूजा शास्त्रों में श्रेष्ठतम पूजा के रूप में वर्णित है। भौतिक पूजा का उद्देश्य भी मानसिक रूप से ईश्वरके सान्निध्य में होना ही है। यह शिव मानस पूजा की रचना हमारे लिए आदिगुरु की कृपा का दिव्य साक्षात् प्रसाद ही है। आवश्यकता सिर्फ इस प्रसाद को निरंतर ग्रहण करते रहने की है।
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शिव पंचाक्षरी स्तोत्रं
ॐ नमः शिवाय
नागेन्द्रहराया त्रिलोचनाय
भास्मंगारागाया महेश्वराय
नित्याय शुद्धाय दिगम्बराय
तस्मै नकाराय नमः शिवाय .. १
मन्दाकिनी सलिला चंदना चर्चिताय
नंदिश्वारा प्रमाथानाथा महेश्वराय
मंदारापुश्पा बहुपुश्ह्पा सुपुजिताया
तस्मै मकाराय नमः शिवाय .. २
भास्मंगारागाया महेश्वराय
नित्याय शुद्धाय दिगम्बराय
तस्मै नकाराय नमः शिवाय .. १
मन्दाकिनी सलिला चंदना चर्चिताय
नंदिश्वारा प्रमाथानाथा महेश्वराय
मंदारापुश्पा बहुपुश्ह्पा सुपुजिताया
तस्मै मकाराय नमः शिवाय .. २
शिवाय गौरी वादानाब्जवृन्दा
सूर्याय दक्शाध्वारा नशाकाया
श्रीनिलाकंथाया व्रुश्ढ़वाजय
सूर्याय दक्शाध्वारा नशाकाया
श्रीनिलाकंथाया व्रुश्ढ़वाजय
तस्मै शिकाराय नमः शिवाय .. ३
वसिष्ठ कुम्भोद्भावा गौतामार्य
देवार्चिता मुनीन्द्र शेखाराया.
चन्द्रर्कावैश्वनारा लोचानाया
देवार्चिता मुनीन्द्र शेखाराया.
चन्द्रर्कावैश्वनारा लोचानाया
तस्मै वकाराय नमः शिवाय .. ४
यक्शास्वरुपाया जताधाराया
पिनाकहस्ताया सनातनाय
दिव्याय देवाय दिगम्बराय
पिनाकहस्ताया सनातनाय
दिव्याय देवाय दिगम्बराय
तस्मै यकाराय नमः शिवाय .. ५
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महाशिवरात्रि
ॐ नमः शिवाय
महाशिवरात्रि हिन्दुओं का एक प्रमुख त्यौहार है। यह भगवान शिव का प्रमुख पर्व है।
फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को शिवरात्रि पर्व मनाया जाता है। माना जाता है कि सृष्टि के प्रारंभ में इसी दिन मध्यरात्रि भगवान् शंकर का ब्रह्मा से रुद्र के रूप में अवतरण हुआ था। प्रलय की वेला में इसी दिन प्रदोष के समय भगवान शिव तांडव करते हुए ब्रह्मांड को तीसरे नेत्र की ज्वाला से समाप्त कर देते हैं। इसीलिए इसे महाशिवरात्रि अथवा कालरात्रि कहा गया। तीनों भुवनों की अपार सुंदरी तथा शीलवती गौरां को अर्धांगिनी बनाने वाले शिव प्रेतों व पिशाचों से घिरे रहते हैं। उनका रूप बड़ा अजीब है। शरीर पर मसानों की भस्म, गले में सर्पों का हार, कंठ में विष, जटाओं में जगत-तारिणी पावन गंगा तथा माथे में प्रलयंकर ज्वाला है। बैल को वाहन के रूप में स्वीकार करने वाले शिव अमंगल रूप होने पर भी भक्तों का मंगल करते हैं और श्री-संपत्ति प्रदान करते हैं।
विधान
इस दिन शिवभक्त, शिव मंदिरों में जाकर शिवलिंग पर बेल-पत्र आदि चढ़ाते, पूजन करते, उपवास करते तथा रात्रि को जागरण करते हैं। शिवलिंग पर बेल-पत्र चढ़ाना, उपवास तथा रात्रि जागरण करना एक विशेष कर्म की ओर इशारा करता है।
इस दिन शिव की शादी हुई थी इसलिए रात्रि में शिवजी की बारात निकाली जाती है। वास्तव में शिवरात्रि का परम पर्व स्वयं परमपिता परमात्मा के सृष्टि पर अवतरित होने की स्मृति दिलाता है। यहां रात्रि शब्द अज्ञान अन्धकार से होने वाले नैतिक पतन का द्योतक है। परमात्मा ही ज्ञानसागर है जो मानव मात्र को सत्यज्ञान द्वारा अन्धकार से प्रकाश की ओर अथवा असत्य से सत्य की ओर ले जाते हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, स्त्री-पुरुष, बालक, युवा और वृद्ध सभी इस व्रत को कर सकते हैं। इस व्रत के विधान में सवेरे स्नानादि से निवृत्त होकर उपवास रखा जाता है।
विधि
इस दिन मिट्टी के बर्तन में पानी भरकर, ऊपर से बेलपत्र, आक धतूरे के पुष्प, चावल आदि डालकर ‘शिवलिंग’ पर चढ़ाया जाता है। अगर पास में शिवालय न हो, तो शुद्ध गीली मिट्टी से ही शिवलिंग बनाकर उसे पूजने का विधान है।
रात्रि को जागरण करके शिवपुराण का पाठ सुनना हरेक व्रती का धर्म माना गया है।
अगले दिन सवेरे जौ, तिल, खीर और बेलपत्र का हवन करके व्रत समाप्त किया जाता है।
महाशिवरात्रि भगवान शंकर का सबसे पवित्र दिन है। यह अपनी आत्मा को पुनीत करने का महाव्रत है। इसके करने से सब पापों का नाश हो जाता है। हिंसक प्रवृत्ति बदल जाती है। निरीह जीवों के प्रति दया भाव उपज जाता है। ईशान संहिता में इसकी महत्ता का उल्लेख इस प्रकार किया गया है -
॥ शिवरात्रि व्रतं नाम सर्वपापं प्रणाशनम्। आचाण्डाल मनुष्याणं भुक्ति मुक्ति प्रदायकं ॥
विशेष
चतुर्दशी तिथि के स्वामी शिव हैं। अत: ज्योतिष शास्त्रों में इसे परम शुभफलदायी कहा गया है। वैसे तो शिवरात्रि हर महीने में आती है। परंतु फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को ही महाशिवरात्रि कहा गया है।ज्योतिषीय गणना के अनुसार सूर्य देव भी इस समय तक उत्तरायण में आ चुके होते हैं तथा ऋतु परिवर्तन का यह समय अत्यन्त शुभ कहा गया हैं। शिव का अर्थ है कल्याण। शिव सबका कल्याण करने वाले हैं। अत: महाशिवरात्रि पर सरल उपाय करने से ही इच्छित सुख की प्राप्ति होती है।
ज्योतिषीय गणित के अनुसार चतुर्दशी तिथि को चंद्रमा अपनी क्षीणस्थ अवस्था में पहुंच जाते हैं। जिस कारण बलहीन चंद्रमा सृष्टि को ऊर्जा देने में असमर्थ हो जाते हैं। चंद्रमा का सीधा संबंध मन से कहा गया है। मन कमजोर होने पर भौतिक संताप प्राणी को घेर लेते हैं तथा विषाद की स्थिति उत्पन्न होती है। इससे कष्टों का सामना करना पड़ता है।
चंद्रमा शिव के मस्तक पर सुशोभित है। अत: चंद्रदेव की कृपा प्राप्त करने के लिए भगवान शिव का आश्रय लिया जाता है। महाशिवरात्रि शिव की प्रिय तिथि है। अत: प्राय: ज्योतिषी शिवरात्रि को शिव आराधना कर कष्टों से मुक्ति पाने का सुझाव देते हैं। शिव आदि-अनादि है। सृष्टि के विनाश व पुन:स्थापन के बीच की कड़ी है। प्रलय यानी कष्ट, पुन:स्थापन यानी सुख। अत: ज्योतिष में शिव को सुखों का आधार मान कर महाशिवरात्रि पर अनेक प्रकार के अनुष्ठान करने की महत्ता कही गई है।
शिकारी कथा
एक बार पार्वती जी ने भगवान शिवशंकर से पूछा, 'ऐसा कौन-सा श्रेष्ठ तथा सरल व्रत-पूजन है, जिससे मृत्युलोक के प्राणी आपकी कृपा सहज ही प्राप्त कर लेते हैं?' उत्तर में शिवजी ने पार्वती को 'शिवरात्रि' के व्रत का विधान बताकर यह कथा सुनाई- 'एक गांव में एक शिकारी रहता था। पशुओं की हत्या करके वह अपने कुटुम्ब को पालता था। वह एक साहूकार का ऋणी था, लेकिन उसका ऋण समय पर न चुका सका। क्रोधित साहूकार ने शिकार को शिवमठ में बंदी बना लिया। संयोग से उस दिन शिवरात्रि थी।'
शिकारी ध्यानमग्न होकर शिव-संबंधी धार्मिक बातें सुनता रहा। चतुर्दशी को उसने शिवरात्रि व्रत की कथा भी सुनी। संध्या होते ही साहूकार ने उसे अपने पास बुलाया और ऋण चुकाने के विषय में बात की। शिकारी अगले दिन सारा ऋण लौटा देने का वचन देकर बंधन से छूट गया। अपनी दिनचर्या की भांति वह जंगल में शिकार के लिए निकला। लेकिन दिनभर बंदी गृह में रहने के कारण भूख-प्यास से व्याकुल था। शिकार करने के लिए वह एक तालाब के किनारे बेल-वृक्ष पर पड़ाव बनाने लगा। बेल वृक्ष के नीचे शिवलिंग था जो विल्वपत्रों से ढका हुआ था। शिकारी को उसका पता न चला।
पड़ाव बनाते समय उसने जो टहनियां तोड़ीं, वे संयोग से शिवलिंग पर गिरीं। इस प्रकार दिनभर भूखे-प्यासे शिकारी का व्रत भी हो गया और शिवलिंग पर बेलपत्र भी चढ़ गए। एक पहर रात्रि बीत जाने पर एक गर्भिणी मृगी तालाब पर पानी पीने पहुंची। शिकारी ने धनुष पर तीर चढ़ाकर ज्यों ही प्रत्यंचा खींची, मृगी बोली, 'मैं गर्भिणी हूं। शीघ्र ही प्रसव करूंगी। तुम एक साथ दो जीवों की हत्या करोगे, जो ठीक नहीं है। मैं बच्चे को जन्म देकर शीघ्र ही तुम्हारे समक्ष प्रस्तुत हो जाऊंगी, तब मार लेना।' शिकारी ने प्रत्यंचा ढीली कर दी और मृगी जंगली झाड़ियों में लुप्त हो गई।
कुछ ही देर बाद एक और मृगी उधर से निकली। शिकारी की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। समीप आने पर उसने धनुष पर बाण चढ़ाया। तब उसे देख मृगी ने विनम्रतापूर्वक निवेदन किया, 'हे पारधी! मैं थोड़ी देर पहले ऋतु से निवृत्त हुई हूं। कामातुर विरहिणी हूं। अपने प्रिय की खोज में भटक रही हूं। मैं अपने पति से मिलकर शीघ्र ही तुम्हारे पास आ जाऊंगी।' शिकारी ने उसे भी जाने दिया। दो बार शिकार को खोकर उसका माथा ठनका। वह चिंता में पड़ गया। रात्रि का आखिरी पहर बीत रहा था। तभी एक अन्य मृगी अपने बच्चों के साथ उधर से निकली। शिकारी के लिए यह स्वर्णिम अवसर था। उसने धनुष पर तीर चढ़ाने में देर नहीं लगाई। वह तीर छोड़ने ही वाला था कि मृगी बोली, 'हे पारधी!' मैं इन बच्चों को इनके पिता के हवाले करके लौट आऊंगी। इस समय मुझे मत मारो।
शिकारी हंसा और बोला, सामने आए शिकार को छोड़ दूं, मैं ऐसा मूर्ख नहीं। इससे पहले मैं दो बार अपना शिकार खो चुका हूं। मेरे बच्चे भूख-प्यास से तड़फ रहे होंगे। उत्तर में मृगी ने फिर कहा, जैसे तुम्हें अपने बच्चों की ममता सता रही है, ठीक वैसे ही मुझे भी। इसलिए सिर्फ बच्चों के नाम पर मैं थोड़ी देर के लिए जीवनदान मांग रही हूं। हे पारधी! मेरा विश्वास कर, मैं इन्हें इनके पिता के पास छोड़कर तुरंत लौटने की प्रतिज्ञा करती हूं।
मृगी का दीन स्वर सुनकर शिकारी को उस पर दया आ गई। उसने उस मृगी को भी जाने दिया। शिकार के अभाव में बेल-वृक्ष पर बैठा शिकारी बेलपत्र तोड़-तोड़कर नीचे फेंकता जा रहा था। पौ फटने को हुई तो एक हृष्ट-पुष्ट मृग उसी रास्ते पर आया। शिकारी ने सोच लिया कि इसका शिकार वह अवश्य करेगा। शिकारी की तनी प्रत्यंचा देखकर मृग विनीत स्वर में बोला, हे पारधी भाई! यदि तुमने मुझसे पूर्व आने वाली तीन मृगियों तथा छोटे-छोटे बच्चों को मार डाला है, तो मुझे भी मारने में विलंब न करो, ताकि मुझे उनके वियोग में एक क्षण भी दुःख न सहना पड़े। मैं उन मृगियों का पति हूं। यदि तुमने उन्हें जीवनदान दिया है तो मुझे भी कुछ क्षण का जीवन देने की कृपा करो। मैं उनसे मिलकर तुम्हारे समक्ष उपस्थित हो जाऊंगा।
मृग की बात सुनते ही शिकारी के सामने पूरी रात का घटनाचक्र घूम गया, उसने सारी कथा मृग को सुना दी। तब मृग ने कहा, 'मेरी तीनों पत्नियां जिस प्रकार प्रतिज्ञाबद्ध होकर गई हैं, मेरी मृत्यु से अपने धर्म का पालन नहीं कर पाएंगी। अतः जैसे तुमने उन्हें विश्वासपात्र मानकर छोड़ा है, वैसे ही मुझे भी जाने दो। मैं उन सबके साथ तुम्हारे सामने शीघ्र ही उपस्थित होता हूं।' उपवास, रात्रि-जागरण तथा शिवलिंग पर बेलपत्र चढ़ने से शिकारी का हिंसक हृदय निर्मल हो गया था। उसमें भगवद् शक्ति का वास हो गया था। धनुष तथा बाण उसके हाथ से सहज ही छूट गया। भगवान् शिव की अनुकंपा से उसका हिंसक हृदय कारुणिक भावों से भर गया। वह अपने अतीत के कर्मों को याद करके पश्चाताप की ज्वाला में जलने लगा।
थोड़ी ही देर बाद वह मृग सपरिवार शिकारी के समक्ष उपस्थित हो गया, ताकि वह उनका शिकार कर सके, किंतु जंगली पशुओं की ऐसी सत्यता, सात्विकता एवं सामूहिक प्रेमभावना देखकर शिकारी को बड़ी ग्लानि हुई। उसके नेत्रों से आंसुओं की झड़ी लग गई। उस मृग परिवार को न मारकर शिकारी ने अपने कठोर हृदय को जीव हिंसा से हटा सदा के लिए कोमल एवं दयालु बना लिया। देवलोक से समस्त देव समाज भी इस घटना को देख रहे थे। घटना की परिणति होते ही देवी-देवताओं ने पुष्प-वर्षा की। तब शिकारी तथा मृग परिवार मोक्ष को प्राप्त हुए'।
अमरनाथ यात्रा
ॐ नमः शिवाय
अमरनाथ हिन्दुओ का एक प्रमुख तीर्थस्थल है। यह कश्मीर राज्य के श्रीनगर शहर के उत्तर-पूर्व में १३५ सहस्त्रमीटर दूर समुद्रतल से १३,६०० फुट की ऊँचाई पर स्थित है। इस गुफा की लंबाई (भीतर की ओर गहराई) १९ मीटर और चौड़ाई १६ मीटर है। गुफा ११ मीटर ऊँची है। अमरनाथ गुफा भगवान शिव के प्रमुख धार्मिक स्थलों में से एक है। अमरनाथ को तीर्थों का तीर्थ कहा जाता है क्यों कि यहीं पर भगवान शिव ने माँ पार्वती को अमरत्व का रहस्य बताया था।यहाँ की प्रमुख विशेषता पवित्र गुफा में बर्फ से प्राकृतिक शिवलिंग का निर्मित होना है। प्राकृतिक हिम से निर्मित होने के कारण इसे स्वयंभू हिमानी शिवलिंग भी कहते हैं। आषाढ़ पूर्णिमा से शुरू होकर रक्षाबंधन तक पूरे सावन महीने में होने वाले पवित्र हिमलिंग दर्शन के लिए लाखो लोग यहां आते है। गुफा की परिधि लगभग डेढ़ सौ फुट है और इसमें ऊपर से बर्फ के पानी की बूँदें जगह-जगह टपकती रहती हैं। यहीं पर एक ऐसी जगह है, जिसमें टपकने वाली हिम बूँदों से लगभग दस फुट लंबा शिवलिंग बनता है। चन्द्रमा के घटने-बढ़ने के साथ-साथ इस बर्फ का आकार भी घटता-बढ़ता रहता है। श्रावण पूर्णिमा को यह अपने पूरे आकार में आ जाता है और अमावस्या तक धीरे-धीरे छोटा होता जाता है। आश्चर्य की बात यही है कि यह शिवलिंग ठोस बर्फ का बना होता है, जबकि गुफा में आमतौर पर कच्ची बर्फ ही होती है जो हाथ में लेते ही भुरभुरा जाए। मूल अमरनाथ शिवलिंग से कई फुट दूर गणेश, भैरव और पार्वती के वैसे ही अलग अलग हिमखंड हैं।
अमरनाथ यात्रा
अमर नाथ यात्रा पर जाने के भी दो रास्ते हैं। एक पहलगाम होकर और दूसरा सोनमर्ग बलटाल से। यानी कि पहलमान और बलटाल तक किसी भी सवारी से पहुँचें, यहाँ से आगे जाने के लिए अपने पैरों का ही इस्तेमाल करना होगा। अशक्त या वृद्धों के लिए सवारियों का प्रबंध किया जा सकता है। पहलगाम से जानेवाले रास्ते को सरल और सुविधाजनक समझा जाता है। बलटाल से अमरनाथ गुफा की दूरी केवल १४ किलोमीटर है और यह बहुत ही दुर्गम रास्ता है और सुरक्षा की दृष्टि से भी संदिग्ध है। इसीलिए सरकार इस मार्ग को सुरक्षित नहीं मानती और अधिकतर यात्रियों को पहलगाम के रास्ते अमरनाथ जाने के लिए प्रेरित करती है। लेकिन रोमांच और जोखिम लेने का शौक रखने वाले लोग इस मार्ग से यात्रा करना पसंद करते हैं। इस मार्ग से जाने वाले लोग अपने जोखिम पर यात्रा करते है। रास्ते में किसी अनहोनी के लिए भारत सरकार जिम्मेदारी नहीं लेती है।
पहलगाम से अमरनाथ
पहलगाम जम्मू से ३१५ किलोमीटर की दूरी पर है। यह विख्यात पर्यटन स्थल भी है और यहाँ का नैसर्गिक सौंदर्य देखते ही बनता है। पहलगाम तक जाने के लिए जम्मू-कश्मीर पर्यटन केंद्र से सरकारी बस उपलब्ध रहती है। पहलगाम में गैर सरकारी संस्थाओं की ओर से लंगर की व्यवस्था की जाती है। तीर्थयात्रियों की पैदल यात्रा यहीं से आरंभ होती है।
पहलगाम के बाद पहला पड़ाव चंदनबाड़ी है, जो पहलगाम से आठ किलोमीटर की दूरी पर है। पहली रात तीर्थयात्री यहीं बिताते हैं। यहाँ रात्रि निवास के लिए कैंप लगाए जाते हैं। इसके ठीक दूसरे दिन पिस्सु घाटी की चढ़ाई शुरू होती है। कहा जाता है कि पिस्सु घाटी पर देवताओं और राक्षसों के बीच घमासान लड़ाई हुई जिसमें राक्षसों की हार हुई। लिद्दर नदी के किनारे-किनारे पहले चरण की यह यात्रा ज्यादा कठिन नहीं है। चंदनबाड़ी से आगे इसी नदी पर बर्फ का यह पुल सलामत रहता है।
चंदनबाड़ी से १४ किलोमीटर दूर शेषनाग में अगला पड़ाव है। यह मार्ग खड़ी चढ़ाई वाला और खतरनाक है। यहीं पर पिस्सू घाटी के दर्शन होते हैं। अमरनाथ यात्रा में पिस्सू घाटी काफी जोखिम भरा स्थल है। पिस्सू घाटी समुद्रतल से ११,१२० फुट की ऊँचाई पर है। यात्री शेषनाग पहुँच कर ताजादम होते हैं। यहाँ पर्वतमालाओं के बीच नीले पानी की खूबसूरत झील है। इस झील में झांककर यह भ्रम हो उठता है कि कहीं आसमान तो इस झील में नहीं उतर आया। यह झील करीब डेढ़ किलोमीटर लम्बाई में फैली है। किंवदंतियों के मुताबिक शेषनाग झील में शेषनाग का वास है और चौबीस घंटों के अंदर शेषनाग एक बार झील के बाहर दर्शन देते हैं, लेकिन यह दर्शन खुशनसीबों को ही नसीब होते हैं। तीर्थयात्री यहाँ रात्रि विश्राम करते हैं और यहीं से तीसरे दिन की यात्रा शुरू करते हैं।
शेषनाग से पंचतरणी आठ मील के फासले पर है। मार्ग में बैववैल टॉप और महागुणास दर्रे को पार करना पड़ता हैं, जिनकी समुद्रतल से ऊँचाई क्रमश: १३,५०० फुट व १४,५०० फुट है। महागुणास चोटी से पंचतरणी तक का सारा रास्ता उतराई का है। यहाँ पांच छोटी-छोटी सरिताएँ बहने के कारण ही इस स्थल का नाम पंचतरणी पड़ा है। यह स्थान चारों तरफ से पहाड़ों की ऊंची-ऊंची चोटियों से ढका है। ऊँचाई की वजह से ठंड भी ज्यादा होती है। ऑक्सीजन की कमी की वजह से तीर्थयात्रियों को यहाँ सुरक्षा के इंतजाम करने पड़ते हैं।
अमरनाथ की गुफा यहाँ से केवल आठ किलोमीटर दूर रह जाती हैं और रास्ते में बर्फ ही बर्फ जमी रहती है। इसी दिन गुफा के नजदीक पहुँच कर पड़ाव डाल रात बिता सकते हैं और दूसरे दिन सुबह पूजा अर्चना कर पंचतरणी लौटा जा सकता है। कुछ यात्री शाम तक शेषनाग तक वापस पहुँच जाते हैं। यह रास्ता काफी कठिन है, लेकिन अमरनाथ की पवित्र गुफा में पहुँचते ही सफर की सारी थकान पल भर में छू-मंतर हो जाती है और अद्भुत आत्मिक आनंद की अनुभूति होती है।
बलटाल से अमरनाथ
जम्मू से बलटाल की दूरी ४०० किलोमीटर है। जम्मू से उधमपुर के रास्ते बलटाल के लिए जम्मू कश्मीर पर्यटक स्वागत केंद्र की बसें आसानी से मिल जाती हैं। बलटाल कैंप से तीर्थयात्री एक दिन में अमरनाथ गुफा की यात्रा कर वापस कैंप लौट सकते हैं।
Kindly Provide Food & clean drinking Water to Birds & Other Animals,
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शिवशक्ति
ॐ नमः शिवाय
शिव कारण हैं; शक्ति कारक।
शिव संकल्प करते हैं; शक्ति संकल्प सिद्धी।
शक्ति जागृत अवस्था हैं; शिव सुशुप्तावस्था।
शक्ति मस्तिष्क हैं; शिव हृदय।
शिव ब्रह्मा हैं; शक्ति सरस्वती।
शिव विष्णु हैं; शक्त्ति लक्ष्मी।
शिव महादेव हैं; शक्ति पार्वती।
शिव रुद्र हैं; शक्ति महाकाली।
शिव रुद्र हैं; शक्ति महाकाली।
शिव सागर के जल समान हैं। शक्ति सागर की लहर हैं।
शिव पंचाक्षर स्त्रोत
ॐ नमः शिवाय
नागेंद्रहाराय त्रिलोचनाय भस्मांग रागाय महेश्वराय |
नित्याय शुद्धाय दिगंबराय तस्मे "न" काराय नमः शिवायः॥
नित्याय शुद्धाय दिगंबराय तस्मे "न" काराय नमः शिवायः॥
हे महेश्वर! आप नागराज को हार स्वरूप धारण करने वाले हैं। हे (तीन नेत्रों वाले) त्रिलोचन आप भष्म से अलंकृत, नित्य (अनादि एवं अनंत) एवं शुद्ध हैं। अम्बर को वस्त्र सामान धारण करने वाले दिग्म्बर शिव, आपके न् अक्षर द्वारा जाने वाले स्वरूप को नमस्कार ।
मंदाकिनी सलिल चंदन चर्चिताय नंदीश्वर प्रमथनाथ महेश्वराय |
मंदारपुष्प बहुपुष्प सुपूजिताय तस्मे "म" काराय नमः शिवायः॥
मंदारपुष्प बहुपुष्प सुपूजिताय तस्मे "म" काराय नमः शिवायः॥
चन्दन से अलंकृत, एवं गंगा की धारा द्वारा शोभायमान नन्दीश्वर एवं प्रमथनाथ के स्वामी महेश्वर आप सदा मन्दार पर्वत एवं बहुदा अन्य स्रोतों से प्राप्त्य पुष्पों द्वारा पुजित हैं। हे म् स्वरूप धारी शिव, आपको नमन है।
शिवाय गौरी वदनाब्जवृंद सूर्याय दक्षाध्वरनाशकाय |
श्री नीलकंठाय वृषभद्धजाय तस्मै "शि" काराय नमः शिवायः॥
श्री नीलकंठाय वृषभद्धजाय तस्मै "शि" काराय नमः शिवायः॥
हे धर्म ध्वज धारी, नीलकण्ठ, शि अक्षर द्वारा जाने जाने वाले महाप्रभु, आपने ही दक्ष के दम्भ यज्ञ का विनाश किया था। माँ गौरी के कमल मुख को सूर्य सामान तेज प्रदान करने वाले शिव, आपको नमस्कार है।
वषिष्ठ कुभोदव गौतमाय मुनींद्र देवार्चित शेखराय |
चंद्रार्क वैश्वानर लोचनाय तस्मै "व" काराय नमः शिवायः॥
चंद्रार्क वैश्वानर लोचनाय तस्मै "व" काराय नमः शिवायः॥
देवगणो एवं वषिष्ठ, अगस्त्य, गौतम आदि मुनियों द्वार पुजित देवाधिदेव! सूर्य, चन्द्रमा एवं अग्नि आपके तीन नेत्र सामन हैं। हे शिव आपके व् अक्षर द्वारा विदित स्वरूप कोअ नमस्कार है।
यज्ञस्वरूपाय जटाधराय पिनाकस्ताय सनातनाय |
दिव्याय देवाय दिगंबराय तस्मै "य" काराय नमः शिवायः॥
दिव्याय देवाय दिगंबराय तस्मै "य" काराय नमः शिवायः॥
हे यज्ञस्वरूप, जटाधारी शिव आप आदि, मध्य एवं अंत रहित सनातन हैं। हे दिव्य अम्बर धारी शिव आपके शि अक्षर द्वारा जाने जाने वाले स्वरूप को नमस्कार है।
पंचाक्षरमिदं पुण्यं यः पठेत शिव सन्निधौ |
शिवलोकं वाप्नोति शिवेन सह मोदते॥
जो कोई शिव के इस पंचाक्षर मंत्र का नित्य ध्यान करता है वह शिव के पून्य लोक को प्राप्त करता है तथा शिव के साथ सुखपूर्वक निवास करता है।शिवाष्टक
ॐ नमः शिवाय
शिव के प्रशंसा में अनेकों अष्टकों की रचना हुई है जो शिवाष्टक, लिंगाष्टक, रूद्राष्टक, बिल्वाष्टक जैसे नामों से प्रसिद्ध हैं। शिवाष्टकों की संख्या भी कम नहीं है। प्रस्तुत शिवाष्टक आदि गुरू शंकराचार्य द्वारा रचित है। आठ पदों में विभक्त यह रचना परंब्रह्म शिव की पूजा एक उत्तम साधन है ।
तस्मै नम: परमकारणकारणाय , दिप्तोज्ज्वलज्ज्वलित पिङ्गललोचनाय । नागेन्द्रहारकृतकुण्डलभूषणाय , ब्रह्मेन्द्रविष्णुवरदाय नम: शिवाय ॥ 1 ॥
जो (शिव) कारणों के भी परम कारण हैं, ( अग्निशिखा के समान) अति दिप्यमान उज्ज्वल एवं पिङ्गल नेत्रोंवाले हैं, सर्पों के हार-कुण्डल आदि से भूषित हैं तथा ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्रादि को भी वर देने वालें हैं – उन शिव जी को नमस्कार करता हूँ।
श्रीमत्प्रसन्नशशिपन्नगभूषणाय , शैलेन्द्रजावदनचुम्बितलोचनाय । कैलासमन्दरमहेन्द्रनिकेतनाय , लोकत्रयार्तिहरणाय नम: शिवाय ॥ 2 ॥
जो निर्मल चन्द्र कला तथा सर्पों द्वारा ही भुषित एवं शोभायमान हैं, गिरिराजग्गुमारी अपने मुख से जिनके लोचनों का चुम्बन करती हैं, कैलास एवं महेन्द्रगिरि जिनके निवासस्थान हैं तथा जो त्रिलोकी के दु:ख को दूर करनेवाले हैं, उन शिव जी को नमस्कार करता हूँ।
पद्मावदातमणिकुण्डलगोवृषाय , कृष्णागरुप्रचुरचन्दनचर्चिताय । भस्मानुषक्तविकचोत्पलमल्लिकाय , नीलाब्जकण्ठसदृशाय नम: शिवाय ॥ 3 ॥
जो स्वच्छ पद्मरागमणि के कुण्डलों से किरणों की वर्षा करने वाले हैं, अगरू तथा चन्दन से चर्चित तथा भस्म, प्रफुल्लित कमल और जूही से सुशोभित हैं ऐसे नीलकमलसदृश कण्ठवाले शिव को नमस्कार है ।
लम्बत्स पिङ्गल जटा मुकुटोत्कटाय , दंष्ट्राकरालविकटोत्कटभैरवाय । व्याघ्राजिनाम्बरधराय मनोहराय , त्रिलोकनाथनमिताय नम: शिवाय ॥ 4 ॥
जो लटकती हुई पिङ्गवर्ण जटाओंके सहित मुकुट धारण करने से जो उत्कट जान पड़ते हैं तीक्ष्ण दाढ़ों के कारण जो अति विकट और भयानक प्रतीत होते हैं, साथ ही व्याघ्रचर्म धारण किए हुए हैं तथा अति मनोहर हैं, तथा तीनों लोकों के अधिश्वर भी जिनके चरणों में झुकते हैं, उन शिव जी को नमस्कार करता हूँ।
दक्षप्रजापतिमहाखनाशनाय , क्षिप्रं महात्रिपुरदानवघातनाय । ब्रह्मोर्जितोर्ध्वगक्रोटिनिकृंतनाय , योगाय योगनमिताय नम: शिवाय ॥ 5 ॥
जो दक्षप्रजापति के महायज्ञ को ध्वंस करने वाले हैं, जिन्होने परंविकट त्रिपुरासुर का तत्कल अन्त कर दिया था तथा जिन्होंने दर्पयुक्त ब्रह्मा के ऊर्ध्वमुख (पञ्च्म शिर) को काट दिया था, उन शिव जी को नमस्कार करता हूँ।
संसारसृष्टिघटनापरिवर्तनाय , रक्ष: पिशाचगणसिद्धसमाकुलाय । सिद्धोरगग्रहगणेन्द्रनिषेविताय , शार्दूलचर्मवसनाय नम: शिवाय ॥ 6 ॥
जो संसार मे घटित होने वाले सम्सत घटनाओं में परिवर्तन करने में सक्षम हैं, जो राक्षस, पिशाच से ले कर सिद्धगणों द्वरा घिरे रहते हैं (जिनके बुरे एवं अच्छे सभि अनुयायी हैं); सिद्ध, सर्प, ग्रह-गण एवं इन्द्रादिसे सेवित हैं तथा जो बाघम्बर धारण किये हुए हैं, उन शिव जी को नमस्कार करता हूँ।
भस्माङ्गरागकृतरूपमनोहराय , सौम्यावदातवनमाश्रितमाश्रिताय । गौरीकटाक्षनयनार्धनिरीक्षणाय , गोक्षीरधारधवलाय नम: शिवाय ॥ 7 ॥
जिन्होंने भस्म लेप द्वरा सृंगार किया हुआ है, जो अति शांत एवं सुन्दर वन का आश्रय करने वालों (ऋषि, भक्तगण) के आश्रित (वश में) हैं, जिनका श्री पार्वतीजी कटाक्ष नेत्रों द्वरा निरिक्षण करती हैं, तथा जिनका गोदुग्ध की धारा के समान श्वेत वर्ण है, उन शिव जी को नमस्कार करता हूँ।
आदित्य सोम वरुणानिलसेविताय , यज्ञाग्निहोत्रवरधूमनिकेतनाय । ऋक्सामवेदमुनिभि: स्तुतिसंयुताय , गोपाय गोपनमिताय नम: शिवाय ॥ 8 ॥
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