शिव के लिए पार्वती ने किया था कठोर तप
शिवपुराण में कथा आती है कि ब्रह्माजी के आदेशानुसार भगवान शंकर को वरण करने के लिए पार्वती ने कठोर तप किया था। ब्रह्मा के आदेशोपरांत महर्षि नारद ने पार्वती को पंचाक्षर मंत्र 'शिवाय नमः' की दीक्षा दी। दीक्षा लेकर पार्वती सखियों के साथ तपोवन में जाकर कठोर तपस्या करने लगीं। उनके कठोर तप का वर्णन शिवपुराण में आया है-
हित्वा हारं तथा चर्म मृगस्य परमं धृतम्।
जगाम तपसे तत्र गंगावतरणं प्रति।
जगाम तपसे तत्र गंगावतरणं प्रति।
माता-पिता की आज्ञा लेकर पार्वती ने सर्वप्रथम राजसी वस्त्रों का अलंकारों का परित्याग किया। उनके स्थान पर मूंज की मेखला धारण कर वल्कल वस्त्र पहन लिया। हार को गले से निकालकर मृग चर्म धारण किया और गंगावतरण नामक पावन क्षेत्र में सुंदर वेदी बनाकर वे तपस्या में बैठ गईं।
ग्रीष्मे च परितो प्रज्वलन्तं दिवानिशम्।
कृत्वा तस्थौ च तन्मध्ये सततं जपती मनुम्।
एवं तपः प्रकुर्वाणा पंचाक्षरजपे रता।
दध्यौ शिवं शिवा तत्र सर्वकालफलप्रदम्।
भाव यह है कि मन और इन्द्रियों का निग्रहकर पार्वतीजी ग्रीष्मकाल में अपने चारों ओर अग्नि जलाकर बीच में बैठ गईं तथा ऊपर से सूर्य के प्रचंड ताप को सहन करती हुई तन को तपाती रहीं। वर्षाकाल में वे खुले आकाश के नीचे शिलाखंड पर बैठकर दिन-रात जलधारा से शरीर को सींचती रहीं।
भयंकर शीत-ऋतु में जल के मध्य रात-दिन बैठकर उन्होंने कठोर तप किया। इस प्रकार निराहार रहकर पार्वती ने पंचाक्षर मंत्र का जप करते हुए सकल मनोरथ पूर्ण करनेवाले भगवान सदाशिव के ध्यान में मन को लगाया।
तुलसीदास ने श्रीरामचरितमानस में पार्वती के तप का वर्णन में कहा है। सयानी पार्वती को देखकर माता मैना और पिता हिमालय को पुत्री के विवाह की चिंता हुई। इतने में महर्षि नारद वहां आ गए। नारद जी को घर में आया देखकर राजा-रानी ने कन्या के भविष्य के विषय में पूछा-
त्रिकालग्य सर्बग्य तुम्ह गति सर्बत्र तुम्हारि।
कहहु सुता के दोष गुन मुनिबर हृदयं बिचारि।
नारद जी ने पार्वती का हाथ देखकर भविष्यवाणी की-
सब लच्छन संपन्न कुमारी। होइहि संतत पियहि पिआरी।
सदा अचल एहि कर अहिवाता। एहि तें जसु पैहहिं पितु माता।
सदा अचल एहि कर अहिवाता। एहि तें जसु पैहहिं पितु माता।
राजा हिमालय ने प्रश्न में बेटी के अवगुण पहले पूछे थे किंतु नारदजी ने पहले पार्वती के गुणों का कथन किया। नारदजी चतुर और मनोवैज्ञानिक वक्ता हैं। अतः माता-पिता से पार्वती के दिव्य गुणों की चर्चा करते हैं। सद्गुणों की एक लंबी सूची नारदजी ने प्रस्तुत की किंतु जब पार्वती के पिता ने पूछा कि महाराज! कुछ दोष हों तो वे भी बतला दें। पुनः नारदजी ने कहा- 'सुनहु जे अब अवगुन दुइ चारी' दो चार अवगुण भी हैं उन्हें भी सुन लो-
'जोगी जटिल अकाल मन नगन अमंलग बेष।
अस स्वामी एहि कहं मिलिहि परी हस्त असि रेख'
नारदजी ने कहा कि पार्वती पुत्री तो सर्वगुण संपन्न हैं, किंतु इसका पति जटाजुटधारी, दिगम्बर तथा अमंगल वेश वाला होगा।
नारदजी की बात सुनकर माता-पिता तो उदास हो गए किंतु पार्वती को आंतरिक प्रसन्नता हुई- 'जौ बिबाहु संकर सन होई। दोषउ गुन सम कह सबु कोई' नारदजी ने पार्वती के माता-पिता को समझाया कि जिन दोषों का वर्णन मैंने किया वे सभी शंकर जी में हैं और पार्वती का विवाह यदि भगवान शंकर से हो गया तो ये दोष भी गुण में परिणत हो जाएंगे- 'समरथ कहुं नहिं दोषु गोसाईं। रबि पावक सुरसरि की नाईं।'
अंत में नारदजी ने यहां तक कह दिया कि शिव को छोड़कर संसार में पार्वती के लिए दूसरा वर है ही नहीं किंतु आशुतोष होने पर भी शंकर जी दुराराध्य हैं। यानी शिव जी कठोर उपासना से प्रसन्न होते हैं। उनको प्राप्त करने का एक ही उपाय है कि पार्वती वन में जाकर कठोर तप करें। नारदजी की प्रेरणा से माता-पिता की आज्ञा लेकर पार्वतीजी हिमालय के गन वन में तपस्या करने चली जाती हैं।
पार्वती जी के तप में हठ से अधिक शिवपद में आंतरिक अनुराग है। अतः शिवजी के चरणों का ध्यान करते हुए उन्होंने संपूर्ण भोगों तथा सुख के साधनों का परित्याग कर दिया। भगवान शंकर के चरणकमलों में नित्य नूतन अनुराग होने के कारण शरीर का भान मिट गया और तन-मन तपस्या में लीन हो गया।
एक हजार वर्ष तक मूल और फल का सौ वर्ष केवल शाक का आहार किया। कुछ दिन तक पानी का हवा का आहार किया, कुछ दिन इन्हें भी त्यागकर कठिन उपवास किया। पुनः वृक्ष से गिरी हुई बेल की सूखी पत्तियां खाकर तीन हजार वर्ष व्यतीत किया। जब पार्वती ने सूखी पत्तियां लेना बंद कर दिया तो उनका नाम अपर्णा पड़ गया। पार्वती को कठोर तपस्या की देखकर आकाशवाणी हुई कि हे देवि! तुम्हारे मनोरथ पूर्ण हो गए। अब तुम हठ छोड़कर घर जाओ, भगवान शंकर से शीघ्र मिलन होगा।
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